छत्तीसगढ़ का बिदरी त्योहार: कृषि की परंपरा और आस्था का प्रतीक
छत्तीसगढ़ का बिदरी त्योहार न केवल कृषि की शुरुआत का प्रतीक है, बल्कि ग्रामीण जीवन की आस्था, एकता और प्रकृति प्रेम का भी उदाहरण है। यह त्योहार हमारी सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखने का एक सशक्त माध्यम है।

छत्तीसगढ़, एक कृषि प्रधान राज्य है, जहां की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से खेती पर निर्भर करती है। राज्य की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि कार्यों में संलग्न है। खेती की शुरुआत से पहले यहां विभिन्न त्योहार मनाए जाते हैं, जिनमें हरेली, छेरछेरा, पोला, कजरी महोत्सव और बिदरी त्योहार प्रमुख हैं।
बिदरी त्योहार: परंपरा और आयोजन
पेंड्रा के दानीकुंडी और बंशीताल गांवों में बिदरी त्योहार परंपरागत रूप से मनाया जाता है। यह त्योहार होली के बाद कृष्ण पक्ष में मनाया जाता है। इस दिन ग्रामीण विशेष नियमों का पालन करते हैं। देवस्थल में पूजा-अर्चना करने के बाद ही किसान खेती की प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं।
विशेष नियम और परंपराएं
- मुनादी: त्योहार से एक दिन पहले गांव में मुनादी कर दी जाती है।
- प्रतिबंध: बिदरी के दिन पानी भरने, निर्माण कार्य या मिट्टी खोदने पर रोक होती है। नियमों के उल्लंघन पर जुर्माना लगाया जाता है।
देवता को अर्पित करते हैं धान-चावल
त्योहार के दिन ग्रामीण अपने घरों से धान की टोकरी लेकर देवस्थल पहुंचते हैं। वहाँ पंडा आधा धान देवता को अर्पित करते हैं और बाकी किसान को लौटा देते हैं। इसके पश्चात किसान धान की बुआई करते हैं और नागर या हाथों से जुताई की प्रक्रिया शुरू होती है।
प्राकृतिक संपदाओं की प्राप्ति
बिदरी उत्सव के दौरान धान के कोढ़े का छिड़काव किया जाता है, जिससे जंगलों में रुगड़ा, पूटु, छतनी और मशरूम जैसे कीमती खाद्य पदार्थ प्राकृतिक रूप से उगते हैं।
समरसता और प्रकृति से जुड़ाव
यह त्योहार जाति-धर्म से परे सभी ग्रामीणों को एकजुट करता है। इसका मुख्य उद्देश्य किसानों को प्रकृति से जोड़ना और अच्छी फसल की कामना करना है। बिदरी को गांव की समृद्धि और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।